नवंबर 25, 2010

रावण का बार-बार जीवित होना

मैं अपनी जिंदगी के करीब 37 साल पूरे कर चुका हूं। इस दरम्यान मैंने कई शहरों में दशहरे के दौरान अनेकों छोटे तथा बड़े कागजी रावणों को जलते देखा है। हर वर्ष जितने रावणों को जलाया जाता हैं उससे कहीं ज्यादा पैदा हो जाते हैं। मैं इस उम्मीद से हर दशहरे पर रावण दहन देखने जाता हूं कि अबकी बार रावण जलेगा तो वह फिर पैदा नहीं होगा। मैं उसे जलता देख मन ही मन हर्षित होता हूं लेकिन अफसोस कि हर बार ठगा रह जाता हूं। हर वर्ष मेरी यह उम्मीद यह देख टूट जाती है कि एक रावण जलाने पर एक नहीं दर्जनों नए रावण पैदा हो जाते हैं। आलम यह है कि देश के हर गली मोहल्ले में रावणों की आबादी दिन दोगुनी रात चौगुनी बढ़ रही है।

मेरे लिए यह आश्चर्य का विषय नहीं कि रावणों की पैदावार इतनी क्यों रही है। मुझे अपनी भारत भूमि की उर्वरता पर पूरा यकीन है कि जब वह इंसान की पैदावार बढ़ने से नहीं घबराती, यह जानते हुए कि यही उसकी छाती पर मूंग दलेंगे। यह तो सभी को बता है कि पूत कपूत हो सकते हैं माता कुमाता नहीं। इसलिए न तो इंसानों की तादाद बढ़ने से घबराती है न ही रावण की तादाद से। आश्चर्य तो इस बात का है कि भगवान श्रीराम के एक तीर से जब महाज्ञानी और महाबलशाली तीनों लोकों का विजेता रावण मर गया था तो अब हर साल दशहरे पर जलाए जाने के बाद इतने रावण क्यों पैदा हो जाते हैं? अगर रावण इसी तरह दिन दो गुने रात चौगुने बढ़ते रहे तो भारत माता भी कितने दिन बोझ सह पाएगी। समस्या यह है कि हमारा सरकार के पास भी परिवार नियोजन का ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे इन कलयुगी रावणों का समूल खात्मा कर सके। वैसे भी जब आबादी घटाने के लिए बने परिवार नियोजन के तरीकों से इनसानी आबादी नियंत्रित नहीं हो पाती तो भला यह दानवी आबादी कैसे नियंत्रित होने लगी। इस कलयुगी रावणों के बार-बार जीवित होने का राज जानने वाले विभीषण भी तो अब नहीं है जिसकी सलाह मान कर कोई राम रावणों को चिर निद्रा में सुला सके।

यह सारी बातें हमेशा से मुझे सालती रही हैं। इसलिए इस बार के दशहरे पर मैंने संकल्प लिया कि कुछ भी हो जाए रावण को मैं ही जलाऊंगा। मुझे यकीन था कि मैंने यदि रावण दहन किया तो फिर उसका जीवित होना संभव नहीं है। इसी विचार के साथ मैं रामलीला मैदान पहुंचा और रावण दहन समारोह सिमित के संयोजक के सामने अपनी सद्इच्छा व्यक्त की।

मुझे भरोसा था कि संयोजक मेरी बात सुनकर मुझे रावण दहन का मौका देगा लेकिन हुआ इसका उलट। संयोजक ने मेरी ओर ऐसे देखा मानों कच्चा ही चबा जाएगा। मुझे प्रश्नवाचक नजरों से अपनी ओर देखकर उनके तेवर कुछ नरम हुए। मेरे कुछ पूछने से पहले ही उन्होंने कहा 'शुक्लजी, आप क्यों रावण को हमेशा के लिए मारने पर तुलें है। इससे देश का क्या भला हो जाएगा। उल्टे इसके हमेशा के लिए मरने से कई लोग रोजी रोटी के लिए मोहताज हो जाएंगी।'

मेरी समझ नहीं आ रहा था कि संयोजक ऐसा क्यों कह रहा है? हालांकि मुझे इस बार भी कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं पड़ी बल्कि संयोजक ने मेरे अंतरमन में उठ रहे सवाल का जवाब दे दिया। उन्होंने कहा- देश में बेरोजगारी की बड़ी समस्या है। यह सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती जा रही है। हर साल दशहरे पर कागज और बांस की मदद से रावण बनाए जाते हैं। इससे कुछ लोगों की दो जून की रोटी की व्यवस्था हो जाती है। इसलिए जितने रावण बनेंगे उतने ही लोगों का भला होगा। यह कागजी रावण तो फिर भी किसी के काम ही आ रहे हैं।

कुछ पल सांस लेने के बाद संयोजक ने कहा मेरी तो सलाह यही है कि आप भी कम से कम एक रावण हर साल बनवाने का संकल्प लें। आप तो जानते ही हैं कि यदि लोग बेरोजगार रहेंगे तो वे दूसरों के मुंह का निवाला छीनने, लूटपाट, हत्या जैसे संगीन अपराधों की ओर अग्रसर होंगे और यह वास्तविक रावणों से कहीं ज्यादा खतरनाक होंगे। वैसे भी असली रावण तो देश के वे नेता हैं जो जनता का खून चूसने से बाज नहीं आ रहे। सरकार से मिलने वाली सारी योजनाओं का लाभ ये ही राक्षक डकार जाते हैं। यदि मारना ही है तो इन रावणों को मारिए।

संयोजक की दलील ने असर दिखाया और मैं रावण जलाने का ख्याल दिल से निकाल कर घर आ गया। अब मैंने भी संकल्प लिया है कि कम से कम एक कागजी रावण हर साल दशहरे पर जलाने के लिए बनवाने में सहयोग करूंगा। इसके बाद से गली-मोहल्ले में चंदा कर रावण बनाने वाले कभी भी चंदा लेने घर आते हैं तो खाली हाथ नहीं लौटते।